Monday 12 December 2011

buaji ke ghar

१ साल ६ माह की उम्र में मैंने बुआजी के घर आंगन के घर की यात्रा की,और वन्ही की हो गयी.आज तक मेरा मन व्न्हान से नही से नही लौटा है, मैंने एक पल के लिए भी जैसे उस वैभव से विलग नही किया है.मुझे बुआ बैलगाड़ी में ले गई थी. वह नदी व्  खेतों से गुजरता रास्ता था, बिच में एक सरोवर पड़ता था, जन्हा सारस पक्षी दीखते थे, वो इतना निश्तब्ध क्षण होते थे ,लगता था, मानो अभी वंहा से देव अप्सराएँ स्नान कर लौटी हो. वो बेहद हराभरा रास्ता होता, जन्हा कछार के बीच से हमारी बैलगाड़ी गुजरती, तब बैलों के गले में बंधी घंटियों की सुमधुर आवाज से वो रहें गूंजा करती थी.वन्ही एक नदी रस्ते में पडती, जिसके स्वच्छ जल के निचे पत्थर व् सिंप दिखते.
आगे कछार में मुझे गन्ने का रस पीने मिलता ,जिसकी मिठास स्मृति में आज भी जीवन देती है. मुझे लगता है, विगत का सावन  व्  बसंत भर बीत चुका है, अब शेष है पतझर, एक यात्रा है, जो तय करनी ही होगी, अपने हिस्से की प्रत्येक ऋतुएं हमे देखनी होती है, यंही जीवन का सत्य है, जिसे हम नकार नही सकते.
आज भी बुआजी को बहूत याद करती हूँ, वो जीवन जैसे वरदान था.